बहुत बे-आबरू पर बहुत ही शादमाँ हो कर तिरे कूचे से हम निकले

मुझे मुशायरे attend करने का ज़रुरत से ज़्यादा शौक नहीं। ख़ास तौर पर जनवरी के महीने में बहुत मेहनत मशक़्क़त से गर्म किए हुए कमरे में गर्मागर्म चाय की प्याली को छोड़ कर दिल्ली जा कर। लेकिन ज़रुरत तो अब आन ही पड़ी है – शायरा जो हो गई। और कुछ भी कहो, एक बार किसी तरह रज़ाई...